मंज़िलों के ग़म में रोने से मंज़िलें नहीं मिलती;
हौंसले भी टूट जाते हैं अक्सर उदास रहने से।
सितम की रस्में बहुत थीं लेकिन, न थी तेरी अंजुमन से पहले;
सज़ा खता-ए-नज़र से पहले, इताब ज़ुर्मे-सुखन से पहले;
जो चल सको तो चलो के राहे-वफा बहुत मुख्तसर हुई है;
मुक़ाम है अब कोई न मंजिल, फराज़े-दारो-रसन से पहले।
जिसमे याद ना आए वो तन्हाई किस काम की;
बिगड़े रिश्ते ना बने तो खुदाई किस काम की;
बेशक इंसान को ऊंचाई तक जाना है;
पर जहाँ से अपने ना दिखें वो उँचाई किस काम की।
जहाँ याद न आये तेरी वो तन्हाई किस काम की;
बिगड़े रिश्ते न बने तो खुदाई किस काम की;
बेशक़ अपनी मंज़िल तक जाना है हमें;
लेकिन जहाँ से अपने न दिखें, वो ऊंचाई किस काम की।
जाने क्या सोच के लहरे साहिल से टकराती हैं;
और फिर समंदर में लौट जाती हैं;
समझ नहीं आता कि किनारों से बेवफाई करती हैं;
या फिर लौट कर समंदर से वफ़ा निभाती हैं।
सियासी आदमी की शक्ल तो प्यारी निकलती है;
मगर जब गुफ़्तगू करता है चिंगारी निकलती है;
लबों पर मुस्कुराहट दिल में बेज़ारी निकलती है;
बड़े लोगों में ही अक्सर ये बीमारी निकलती है।