लबों पे घर से तबस्सुम सजा के निकलूँगा
मैं आज फिर कोई चेहरा लगा के निकलूँगा
राह की मोड़ में लगता है अकेला कोई
तुमसा न हो नज़दीक तो जाकर देखो
ख़बर न थी उसे इन खोखली ज़मीनों की वह
सिर्फ़ राह को हमवार [एकसार] देखकर ख़ुश था
न जाने क्या हुआ इन बस्तियों को हर
इक मंज़र निगाहों पर गिराँ [भारी] है
बस्तियों में दश्त का मंज़र मिला
जो मिला इस शहर में बेघर मिला
एक शीशे की इमारत हूं
मैं टूट जाने के बहाने हैं बहुत
जाने कितनी उड़ान बाक़ी है
इस परिन्दे में जान बाक़ी है